गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

शायद मुझे नींद आ रही थी

दोपहर के बाद का समय था 
खा कर लौटे कुछ देर हो चला था 
आँखे भारी सी लग रही थी 
मन को आलस घेर रहा था 
देह कुछ करने को तैयार ना था 
बार बार जम्हाई आ रही थी 
कभी गर्दन को दाये झटकता 
तो कभी बाये झटकता 
कभी खुद को चिकोटी काटता 
कभी अंगुलिया चटकाता 
कभी पानी की दो घुंट पीकर 
दो चार कदम यूं ही चलता
कंप्यूटर पर कुछ लिख रहा था मै 
अंगुलिया स्वतः रुक सी गयी थी 
जाने क्या हो रहा था मुझे 
शायद मुझे नींद आ रही थी |

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