आज शाम की बारिश में
बस का सफर अनोखा था
कांच टूटी थी खिड़की की
हर जोड़ में रिसाव था
जैसे जैसे फिर दिन ढला
बारिश का भी चादर फैला
बस जैसे जैसे गतिमान हुआ
खिड़की से पानी दाखिल हुआ
हर मुसाफिर अब खिड़की से दूर हुआ
जब पानी से तन सबका गिला हुआ
खड़े हुए सब बस के भीतर
जब जोड़ो से भी रिसाव हुआ
बारिश ने फिर जोर लगाया
पानी बस के भीतर आया
बस में दरिया का निर्माण हुआ
हर मुसाफिर का तन गिला हुआ
रास्ते में थे खड्डे अनेक
बारिश में दिखते सब एक
चालक बस को झटके देता
पानी के छींटे ऊँचे उडाता
जैसे तैसे सफर था काटा
तब जाके मंजिल पर आया
अब भी घर था दूर हमारा
हमने भी तब छतरी डाला
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