मैं मेनका
चली रिझाने
महर्षि
विश्वामित्र को।
कभी मृदंग की ढाप से,
कभी केशों की छाव से,
अपने सोलह श्रृंगार से,
नृत्य की झंकार से,
कभी वीणा के वान से,
कभी सितार के तार से,
अपने कदमो के थापों से,
नव यौवन की अदाओ से,
हर सम्भव प्रयास करू मैं
नित नव अनुसन्धान करू मैं
मान जाओ हे विश्वामित्र ,
अब तुझको प्रणाम करू मैं।
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