सोमवार, 1 दिसंबर 2014

मनःस्थिति

मैं मेनका
चली रिझाने 
महर्षि 
विश्वामित्र को। 

कभी मृदंग की ढाप से, 
कभी केशों की छाव से,
अपने सोलह श्रृंगार से,
नृत्य की झंकार से,

कभी वीणा के वान से,
कभी सितार के तार से, 
अपने कदमो के थापों से, 
नव यौवन की अदाओ से, 

हर सम्भव प्रयास करू मैं
नित नव अनुसन्धान करू मैं 
मान जाओ हे विश्वामित्र ,
अब तुझको प्रणाम करू मैं। 

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